सूर्यपुत्र कर्ण
कर्ण सर्वश्रेस्ट योद्धाओं में से एक थे। उनकी माता कुंती को दुर्बासा ऋषि का आशीर्वाद था की वो किसी भी देवता को मंत्रो द्वारा बुला सकते है। यह देखने के लिए उन्होंने सूर्य देव् का आह्वान किया जिससे सूर्यदेव प्रकट हुए। कुंती ने कहा की उन्होंने देखने के लिए ऐसे किया। लेकिन सूर्यदेव कुछ बिना दिए नहीं जा सकते थे और उन्होंने पुत्र होने का आशीर्वाद दिया। सूर्यदेव के आशीर्वाद से कुंती को पुत्र की प्राप्ति हुई जिसमे सूर्य के सामान तेज था। लोक लाज के कारण कुंती ने कर्ण को पालने में डालकर पानी में वहा दिया। अधिरथ जो की सूत थे और जो रथ चलते थे उन्होंने कर्ण को अपनाया और उनकी पत्नी राधे ने उनका पालन पोसन किया। सूत होने के कारण कर्ण दूसरे राजकुमारों की तरह शिक्षा नहीं ले पाए। तो वो ब्राम्हण का परिचय देकर परशुराम से शिक्षा लेने लगे। लेकिन जब परशुराम को उनकी असलियत के बारे में पता चला तो उन्होंने कर्ण को श्राप दिया की उनकी सिखाई बिद्या वो युद्ध में भूल जायेंगे। इस बीच उनकी मित्रता दुर्योधन से हुई। कर्ण महाभारत युद्ध में मरे गए।
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सूर्यपुत्र कर्ण |
कर्ण पूर्व जन्म में महाशक्तिशाली दैत्य दम्बोध्भव थे। उन्होंने सूर्य देव् की तपस्या की और अमर होने का वरदान माँगा लेकिन सूर्य देव् ने उन्हें आशीर्वाद दिया की उन्हें एक हज़ार कवच दिए जाते है जिसको कोई अस्त्र शस्त्र भेद नहीं सकता। वरदान पाते ही उसने सबको परेशां करना शुरू कर दिया। प्रजापति दक्ष की पुत्री मूर्ति ने भगवान बिष्णु की तपस्या की और उनसे आग्रह किया की वो दैत्य दम्बोध्भव का अंत करे। भगवान बिष्णु ने मूर्ति के गर्व से नर और नारायण के रूप में जनम लिया। जब दैत्य दम्बोध्भव को उन बच्चों के बारे में पता चला तो वो उन बच्चों को मरने के लिए वन में गए और उनसे लड़ने लगे। लड़ते लड़ते उन बच्चों ने एक हज़ार में से नौसो निन्यानवे कवच काट दिए और अब सिर्फ एक कवच बाक़ी रह गया। दैत्य दम्बोध्भव अपनी जान बचाने के लिए सूर्य देव् के सरन में गए और सूर्य देव् ने उन्हें सरन दी। लेकि जब नर और नारायण सूर्य देव् के पास पहुंचे और उनसे दैत्य दम्बोध्भव को देने को कहा तो सूर्यदेव ने देने से मना कर दिया। इस पर उन दोनों ने सूर्यदेव और दैत्य दम्बोध्भव को श्राप दिया की दैत्य दम्बोध्भव की मृत्यु उनके हातो ही होगी। अगले जन्म में दैत्य दम्बोध्भव की मृत्यु कर्ण के रूप में अर्जुन के हातो हुई।
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